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राजस्थान की बोलियां (Rajasthan ki boliyan)

राजस्थान की बोलियां (Rajasthan ki boliyan)

राजस्थान की बोलियां (Rajasthan ki boliyan) , मारवाड़ी बोली , मेवाड़ी बोली ,  मेवाती बोली , मध्य-पूर्वी राजस्थानी , दक्षिणी-पूर्वी राजस्थानी , पश्चिमी राजस्थानी या मारवाड़ी

राजस्थान की बोलियां (Rajasthan ki boliyan)
राजस्थान की बोलियां (Rajasthan ki boliyan)

राजस्थान की बोलियां (Rajasthan ki boliyan) व उनके क्षेत्र

राजस्थान की बोलियां (Rajasthan ki boliyan) सबसे पहले उल्लेख 1960 तथा 1912 में सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने भारतीय भाषा विषयक शब्दकोश लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के दो खंडों में विस्तार पूर्वक किया था।

राजस्थानी भाषा की विशेषता यह है कि यह प्रत्येक स्थान विशेष की शैली को छुती है। अर्थात राजस्थानी के स्वरूप भी स्थानीय स्तर पर बदलते रहते हैं।

राजस्थानी बोलियों (Rajasthan ki boliyan) का सर जॉर्ज इब्राहिम द्वारा किया गया वर्गीकरण

बोलने वालों की संख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से पश्चिमीचमी राजस्थानी अथवा मारवाड़ी राजस्थान की सबसे महत्वपूर्ण बोली है।

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यह मुख्यत: मारवाड़, मेवाड़, पूर्वी सिंध, जैसलमेर, बीकानेर, दक्षिणी पंजाब और जयपुर स्टेट के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्रों में बोली जाती है।

मारवाड़ी राजस्थान के सबसे अधिक क्षेत्रफल में बोली जाती है। जोधपुरी, बीकानेरी, थली, ढटकी की आदि मारवाड़ी की उपबोलियां है।

पश्चिमी राजस्थानी और मारवाड़ी बोली को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है-

पूर्वी मारवाड़ी

इसके अंतर्गत मारवाड़ी, मेवाड़ी, एवं गरासियों की बोली का समावेश किया जाता है। इस बोली का प्रयोग मुख्य रुप से धर्म, नीति, लोकजीवन एवं भक्ति आदि क्षेत्रों में किया जाता है। राजिया रा सोरठा इस बोली में लिखे गए हैं।

उत्तरी मारवाड़ी

इसके अंतर्गत बीकानेरी, बागड़ी और शेखावटी बोलियों का समावेश किया जाता है। उत्तरी मारवाड़ी पर सीमा क्षेत्र की भाषाओं का प्रभाव हुआ है। वेलि कृष्ण रुक्मणी री नामक ग्रंथ की रचना उत्तरी मारवाड़ी में की गई है।

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पश्चिमी मारवाड़ी

इसके अंतर्गत थली और धटकी की आदि बोलियों का समावेश किया जाता है।

दक्षिणी मारवाड़ी

यह बोली मारवाड़ के दक्षिणी क्षेत्रों में बोली जाती है। इसके अंतर्गत सिरोही, गोड़वाड़ी, देवड़ावाटी और मारवाड़ी-गुजराती बोलियों का समावेश किया जाता है।

उत्तरी-पूर्वी राजस्थानी (अहीरवाटी एवं शेखावटी)

यह बोली हिंदी के समान प्रतीत होती है इसके अंतर्गत मेवाती (अलवर, भरतपुर, गुड़गांव) और अहीर प्रदेश की अहिरवाटी बोलियों को शामिल किया जाता है।

चरणदास, सहजोबाई दयाबखई और लाल दास आदि की वाणीयां मेवाती में है। सर ग्रियर्सन के अनुसार मेवाती बृज भाषा से मिलती है। और यह राजस्थान का प्रतिनिधित्व करती है। मेवाती को कुछ भागों में विभक्त किया गया है-

कठेर मेवाती

यह बोली राजस्थान के पूर्वी सीमा पर बोली जाती है। अतः इस पर काटेरी ब्रजभाषा का प्रभाव है। राज्य की दक्षिणी सीमा पर यह काठेड़ा जयपुर से प्रभावित है। कठेर मेवाती मुख्यतः भरतपुर के उत्तर पश्चिम और अलवर के दक्षिण पूर्वी क्षेत्रों में बोली जाती है।

भयाना मेवाती

यह बोली भयाना मेवाती तहसील में बोली जाती है। भयाना मेवाती हरियाणवी गोली से प्रभावित है।

आरेज मेवाती

यह बोली गुड़गांव जिले की दक्षिणी तहसील झिरका, फिरोजपुर, रेवाड़ी और जिला महेंद्रगढ़ की नारोल तहसील तक बोली जाती है।

नहेडा़ मेवाती

यह बोली प्रतापगढ़, अजबगढ़, थानागाजी और बल्देवगढ़ आदि क्षेत्रों में बोली जाती है। यह बोली जयपुरी बोली से अत्यधिक प्रभावित है।

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बिछोता मेवाती

यह बोली खैरथल, कोटकासिम, मुंडावर, बहरोड, नीमराना, हरसोली, जिंदोली, बानसूर और करनिकोट आदि क्षेत्रों में बोली जाती है‌ बिछोता एवं राठी मेवाती को एक ही बोली माना जाता है।

मध्य-पूर्वी राजस्थानी

इसके अंतर्गत चौरिसी, नागर चाल, हाड़ोती, तोरावटी, राजावाटी, काठैड़ी, किशनगढ़ी और अजमेरी आदि बोलियों का समावेश किया जाता है। जयपुर व आसपास के क्षेत्र की बोली को जयपुरी कहा जाता है। इस बोली को ढूंढाड़ी भी कहा गया है।

इसका प्रयोग मुख्यतया जयपुर, किशनगढ़, अजमेर एवं उत्तर पूर्वी राजस्थान में किया जाता है। हाडोती बोली कोटा, बूंदी, झालावाड़ में बोली जाती है।

दक्षिणी-पूर्वी राजस्थानी

इसे मालवी रागडी़, सोढ़वाडी आदि भागों में विभक्त किया गया है। यह बोली मालवा, मेवाड़ एवं मध्य प्रांत के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है। इस बोली पर मारवाड़ी, ढूंढाड़ी तथा मराठी का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है‌ मालवा के राजपूतों के द्वारा बोली जाने वाली बोली को रागडी़ कहा जाता है।

दक्षिणी राजस्थानी

नीमाडी़ इसकी प्रमुख बोली है। यह बोली मालवी का दूसरा रूप है और यह पर्वतीय प्रदेश की जातियों के द्वारा बोली जाती ह यह बोली ढीली तथा खानदेशी बोलियों से भी प्रभावित है।

राजस्थानी बोलियां (Rajasthan ki boliyan) का नरोत्तम स्वामी द्वारा किया गया वर्गीकरण

नरोत्तम स्वामी ने राजस्थानी बोलियां को चार भागों में विभक्त किया है जो निम्न है-

पश्चिमी राजस्थानी या मारवाड़ी

इसके अंतर्गत उदयपुर, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर और शेखावाटी के क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया है।

पूर्वी राजस्थानी या ढूंढाडी़

इसके अंतर्गत जयपुर तथा ढूंढाड़ क्षेत्र को शामिल किया गया है।

उत्तरी राजस्थानी

इसके अंतर्गत अलवर प्रदेश की मेवाती और अहिरी बोलियां आती है।

दक्षिणी राजस्थानी या मालवी

इसके अंतर्गत मालवा तथा नोमाड़ की बोलियां आती है।

राजस्थानी बोलियां (Rajasthan ki boliyan) का हीरालाल माहेश्वरी द्वारा किया गया वर्गीकरण

हीरालाल माहेश्वरी में राजस्थानी बोलियां का निम्नांकित विवरण प्रस्तुत किया है-

मारवाड़ी

इसके अंतर्गत शेखावाटी तथा मेवाड़ी भी है‌ यह मारवाड़, जैसलमेर, उदयपुर, बीकानेर तथा सिरोही में किंचित स्थानीय भेदों के साथ बोली जाती है। इसका विशुद्ध रूप जोधपुर तथा उसके समीपवर्ती भूभाग में दृष्टिगत होता है। मोटे तौर पर यह समस्त राजस्थान की साहित्यिक भाषा रही है। इतनी प्रमुख की बहूधा इसे राजस्थानी का पर्याय तक भी मान लिया गया है।

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इसका साहित्य अति विशाल एवं विविधता पूर्ण है। इसकी अपनी कुछ विशेषताएं भी है। यह ओज गुण प्रधान भाषा है और राजस्थान का प्रसिद्ध मॉड राग इसमें खूब मिलता है। इसे राजस्थान की स्टैंडर्ड बोली कहा जाता है।

मारवाड़ी में ‘व कार’ का प्रयोग विशिष्ट है और प्रायः ‘इ कार’ और उ कार के स्थान पर ‘अ कार’ करने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है।

मेवाती (अहिरवाटी)

यह अलवर, भरतपुर तथा दिल्ली के दक्षिण में रोहतक, गुड़गांव जिलों के अंशों में बोली जाती है। इस पर ब्रिज का प्रभाव लक्षित होता है चरण दास जी पंथ के प्रवर्तक महात्मा चरणदास और इनकी दो शिष्योंओं की रचनाएं भी इसी भाषा में लिखी गई है।

ढूंढाड़ी

दादू दयाल और उनके शिष्यों की रचनाएं इसी भाषा में लिखी गई है। यह लावा, किशनगढ़, जयपुर, अजमेर-मेरवाड़ा के उत्तर पूर्वी अंश तथा टोंक जिले में बोली जाती है।

मालवी

यह मालवा प्रदेश में बोली जाती है इसमें कुछ विशेषताएं मारवाड़ी और ढूंढाड़ी की पाई जाती है। इसमें वर्तमान के लिए ‘है’ तथा भूत के लिए ‘थो, था, थी,’ भविष्य के लिए ‘गो,गा,गी’ और संबंध कार्य के लिए ‘को,का, की,’ काम में लिए जाते हैं।

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