राजस्थानी भाषा (Rajasthani language in Hindi)
राजस्थानी भाषा का नामकरण, राजस्थानी भाषा का विकास, राजस्थानी भाषा की विशेष जानकारी तथा उससे संबंधित विस्तृत जानकारी
राजस्थानी भाषा (Rajasthani language in Hindi)
राजस्थानी भाषा का नामकरण
राजस्थान राज्य में बोली जाने वाली भाषा को राजस्थानी भाषा के नाम से जाना जाता है। आज राजस्थान के नाम से प्रसिद्ध इस प्रदेश की विभिन्न देसी रियासतों को सामूहिक इकाई के रूप में राजपूताना नाम सर्वप्रथम जॉर्ज थॉमस ने सन 1800 में दिया था।
तत्पश्चात कर्नल टाड ने सन 1829 ईस्वी में इसे राजस्थान (रायथान) नाम से संबोधित किया।
अरावली पर्वत श्रेणी इस प्रदेश को दो स्वभाविक भू-भागों में विभाजित करने का कार्य करती है। उत्तर पश्चिमी तथा दक्षिण पूर्वी। उत्तर पश्चिमी भाग में बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर तथा शेखावटी प्रदेश का कुछ भाग आता है।
इस भाग की सामूहिक सत्ता मारवाड़ का मरु प्रदेश है। दक्षिणी पूर्वी भाग में शेष राज्य का पूरा भू-भाग सम्मिलित किया जाता है।
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राजस्थानी, मरू भाषा और डिंगल
राजस्थानी भाषा का प्राचीन नाम मरूभाषा (मरू प्रदेश या मारवाड़ की भाषा) भी रहा है। आठवीं शताब्दी के लिए कुवलयमाला नामक ग्रंथ में भारत की 18 देशी भाषाओं में मरू प्रदेश की भाषा का भी उल्लेख है।
अबुल फजल ने आईने अकबरी में भारत की मुख्य भाषाओं में मारवाड़ी को भी सम्मिलित किया है। जैन कवियों ने भी अपने ग्रंथों की भाषा को मरू भाषा ही कहा है। मरू भाषा के अन्य नाम- मरुभूमि भाषा, मरूभाषा मरूदेसिया एवं मरुवाणी आदि भी मिलते हैं।
मरु भाषा पहले से प्रचलित एक व्यापक नाम है। जिसमें राजस्थानी भाषा की समस्त बोलियां, उपबोलियां तथा शैलियां समावित हो जाती है।
मरु भाषा
यह राजस्थान की प्रमुख भाषा है। राज्य के कुछ स्थानीय परिवर्तनों के साथ मरू भाषा राजस्थान की साहित्यिक भाषा भी रही है।
उद्बोधन सूरी द्वारा लिखित कुवलयमाला नामक ग्रंथ में मरू, गुर्जर, लाट और मालवा प्रदेश की भाषाओं का उल्लेख है। जैन कवि भी अपने ग्रंथों की भाषा को मरू भाषा मानते हैं।
गोपाल लाहौरी ने राठौड़ पृथ्वीराज द्वारा रचित ‘वेलि’ नामक ग्रंथ की भाषा को मरू भाषा माना है।
अबुल फजल ने आईने अकबरी में भारतीय भाषाओं का वर्णन करते समय मारवाड़ी को भारतीय भाषाओं में शामिल किया है।
मरु भाषा को मुख्यत: मरुदेशीय भाषा, मरुभूमि भाषा और मरुवाणी आदि नामों से पुकारा जाता रहा है। मरु भाषा पर पड़ोसी राज्य की भाषाओं का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
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राजस्थानी भाषा का विकास
भाषा विशेषज्ञों के मतानुसार आर्य जाति सर्वप्रथम पंचनंद नामक प्रांत में बसी। इस युग में वैदिक संस्कृत का जन्म हुआ। वैदिक संस्कृत का परिवर्तित साहित्य स्वरूप संस्कृत और सामान्य बोलचाल की भाषा को प्राकृत कहा गया।
प्राकृत भाषा के दो भाग हैं प्रथम प्राकृतें और दूसरी प्राकृतें। प्रथम प्राकृतों के अंतर्गत पाली और अपभ्रंश को प्रमुख माना जाता है। बौद्ध और जैन धर्म के ग्रंथों की रचना इन्हीं भाषाओं में की गई है।
दूसरी प्राकृतों में मागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री प्रमुख हैं। कालांतर में प्राकृत भाषाओं ने भी साहित्यिक भाषाओं का रूप धारण कर लिया।
साधारण बोलचाल की भाषा के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण अपभ्रंश भाषा का उदय हुआ प्राकृतिक चंद्रिका में अपभ्रंश भाषा के 27 प्रकार बताए गए हैं।
डाॅ ग्रियर्सन के मतानुसार अपभ्रंश पश्चिम राजस्थान और गुजरात में प्रचलित थी।
डॉ सुनीति कुमार चटर्जी और श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने उक्त क्षेत्र की अपभ्रंश भाषा को क्रमश से सौराष्ट्री और गुर्जरी अपभ्रंश के नाम से संबोधित किया।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में आधुनिक गुजरात में आधुनिक राजस्थान के क्षेत्रों में गुर्जरी अपभ्रंश भाषा का प्रचलन था गुर्जरी अपभ्रंश के द्वारा राजस्थानी भाषा का जन्म हुआ जो भविष्य में डिंगल के नाम से प्रसिद्ध हुई।
राजस्थानी लिपि
यदि राजस्थानी भाषा की लिपि के कुछ अफसरों को छोड़ दिया जाए तो यह देवनागरी लिपि के समान हो जाती है। राजस्थानी भाषा की लिपि एक लकीर खींच कर घसीट रूप में लिखी जाती है।
इस लिपि का प्रयोग मुख्यतः अदालतों में किया जाता था। कुछ विद्वान महाजनी लिपि को भी राजस्थानी भाषा की लिपि का विशुद्ध रूप मानते हैं। लेकिन इन दोनों में भी कुछ भिन्नता पाई जाती है।
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डिंगल
मारवाड़ी भाषा के साहित्य स्वरूप को डिंगल माना जाता है। डिंगल भाषा का सर्वप्रथम प्रयोग पिंगल शिरोमणि नामक ग्रंथ के रचयिता कुशललाभ द्वारा विक्रम संवत 1607 से 1681 के मध्य किया गया।
चारण कवि बांकीदास और कवि सूर्यमल मिश्रण ने अपनी रचनाओं में डिंगल भाषा का प्रयोग किया है। वस्तुतः मरू भाषा के लिए ही डिंगल शब्द का प्रयोग किया गया है।
पंडित व्यास सूर्य किरण शास्त्री ने मरू भाषा, डिंगल और मरुवाणी को एक ही भाषा माना है। पंडित रामकरण आसोप ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ राजरूपक प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से लिखा है कि डिंगल भाषा राजस्थानी भाषा है।
डॉ सुनीति कुमार चटर्जी ने राजस्थानी भाषा के लिए डिंगल अथवा मारवाड़ी शब्द का प्रयोग किया है।
डिंगल शब्द की उत्पत्ति के संबंध में अनेक मत प्रचलित है। विभिन्न मतों को ध्यान में रखते हुए डॉक्टर एल पी टैस्सीटौरी के विचार को उपयुक्त माना जा सकता है। उन्होंने डिंगल भाषा को दो भागों में विभक्त किया है।
प्रथम प्राचीन डिंगल भाषा जो 13 वीं शताब्दी के मध्य से लेकर 17 वी शताब्दी के मध्य तक प्रचलित रही और द्वितीय अर्वाचीन डिंगल भाषा जो 17वीं शताब्दी से लेकर अब तक प्रचलित है।
डिंगल भाषा की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसके अंतर्गत जो शब्द जिस तरह से बोला जाता है ठीक उसी तरह से उसे लिखा भी जाता है। डिंगल भाषा के विकास में चारण, भाट, राव, मोढीसर और ढाढी़ आदि जातियों का विशेष योगदान रहा है।
राजस्थान की भाट जाति का मुख्य कार्य विभिन्न राजवंशों के परिवारों की वंशावलियों को सुरक्षित रखना था।
राजस्थानी भाषा से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य
उत्पत्ति की दृष्टि से राजस्थानी भाषा का उद्भव शौरशैनी प्राकृत के गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ है।
भाषा विशेषज्ञ एल.पी. टैस्सीटौरी के अनुसार 12 वीं सदी के लगभग राजस्थानी भाषा अपने अस्तित्व में आ चुकी थी।
राजस्थानी भाषा का उद्भव 9 वीं शताब्दी माना जाता है। किंतु इसमें साहित्य रचना के प्रमाण 13 वीं शताब्दी से मिलते हैं।
डिंगल और पिंगल राजस्थानी भाषा की दो विशिष्ट काव्य शैलियों के नाम हैं।
राजस्थान की भाषा के विकास में सर्वाधिक योगदान चारण जाति का रहा है और चारणों द्वारा लिखी गई भाषा को ही शुद्ध राजस्थानी भाषा का मूल स्वरूप माना जाता है।